सागर का इतिहास - Sagar Ka Itihaas

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सागर का इतिहास - Sagar Ka Itihaas


चेंदी साम्राज्य का हिस्सा


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गुप्त वंश के शासनकाल में इस क्षेत्र को सर्वाधिक महत्व मिला। उपलब्ध दस्तावेज के हिसाब से छठी शताब्दी में यह उत्तर भारत के महाजनपदों में से एक चेदी साम्राज्य का हिस्सा बन गया था। इसके बाद इसे पुलिंद शहर में शामिल कर लिया गया।

यह राजकीय तथा सैन्य गतिविधियों का महत्वपूर्ण केन्द्र था। नौवीं शताब्दी में चंदेल और कल्चुरी राजवंशों ने यहां राज किया। इसके बाद परमारों का और फिर तेरवीं व चौदहवीं शताब्दी में मुगलों का शासनकाल यहां था। ऐतिहासिक साक्ष्‍यों के अनुसार सागर का प्रथम शासक श्रीधर वर्मन को माना जाता है।


पंद्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में सागर पर गौंड़ शासकों ने कब्जा जमाया। फिर महाराजा छत्रसाल ने धामोनी, गढ़ाकोटा और खिमलासा में मुगलों को हराकर अपनी सत्ता स्थापित की लेकिन बाद में इसे श्रीमंत बाजीराव पेशवा ने पंडित गोविंद पंत बुंदेले को सौपा इसके बाद मामलतदार श्रीमंत गोविंद पंत ने सागर शहर की स्थापना की ।

साल्वै की सन्धि के बाद इसे अंग्रेजो को सौंप दिया। सन् 1818 में अंग्रेजों ने अपना कब्जा जमाया और यहां ब्रिटिश साम्राज्‍य का आधिपत्य हो गया। सन् 1861 में इसे प्रशासनिक व्यवस्था के लिए नागपुर में मिला दिया गया और यह व्यवस्था सन् 1956 में नए मध्यप्रदेश राज्‍य का गठन होने तक बनी रही।

सागर. मध्य प्रदेश का एक महत्वपूर्ण शहर है। जब ऊदनशाह ने तालाब के किनारे स्थित वर्तमान किले के स्थान पर एक छोटे किले का निर्माण करवा कर उस के पास परकोटा नाम का गांव बसाया था। निहालशाह के वंशज ऊदनशाह द्वारा बसाया गया वही छोटा सा गांव आज सागर के नाम से जाना जाता है। परकोटा अब शहर के बीचों-बीच स्थित एक मोहल्ला है।

राहतगढ़ के किले का इतिहास - History Of Rahatgarh Fort In Hindi

बुंदेलखंड में कई किले भारत के स्वाधीनता संग्राम के साक्षी रहे हैं। इसमें से एक है राहतगढ़ का किला। सन् 1857 के विद्रोह के बाद जब ब्रिटिश अधिकारी ह्यूरोज सेना लेकर झांसी की ओर बढ़ रहा था। तब उसका सामना बुंदेलखंड के योद्धाओं से हुआ। शाहगढ़, बानपुर के जवानों ने ह्यूरोज के सैनिकों को कड़ी टक्कर दी। 

गढ़ाकोटा व सागर पर अधिकार करने के बाद ह्यूरोज का लक्ष्य राहतगढ़ का किला था। ह्यूरोज, अन्य अधिकारियों हैमिल्टन व पेंडर गोस्ट की टुकड़ियों के साथ जबलपुर से गढ़ाकोटा आया। यहां दो दिन रुककर सैनिक राहतगढ़ की ओर बढ़ा दिए।

गजेटियर के मुताबिक ब्रिटिश सेना ने रात में ही राहतगढ़ दुर्ग को चारों ओर से घेर लिया और सुबह होते ही दुर्ग पर गोलाबारी शुरू कर दी। किले में सागर की 49वीं पैदल सेना के विद्रोही सैनिक थे। वे सहायता के लिए शाहगढ़, बानपुर और राजा मर्दन सिंह को पहले ही मदद के लिए पत्र लिख चुके थे। 


दुर्ग की सुरक्षा की विद्रोही सैनिकों ने कोई व्यवस्था नहीं की थी। इस वजह से वे किले में घिरकर रह गए। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि विद्रोही सेना में एक भी अधिनायक ऐसा नहीं था, जो युद्ध की सभी विधाओं से भली-भांति परिचित हो।

इसके बावजूद राहतगढ़ के किले से विद्रोही सैनिकों ने ब्रिटिश सेना की गोलाबारी का पूरा जवाब दिया। इसी बीच, राहतगढ़ दुर्ग में घिरे सैनिकों का पत्र मिलते ही शाहगढ़ व बानपुर की संयुक्त सेनाएं भी राहतगढ़ की ओर कूच कर चुकी थीं। सुबह से तीन घंटे ही युद्ध चल पाया कि राहतगढ़ पर घेरा डालने वाली ब्रिटिश सेना ने खुद को घिरा हुआ पाया।

जवाहर सिंह, हिम्मत सिंह, मलखान सिंह जालंधर वालों ने ब्रिटिश सेना पर चारों ओर से घेरा डालकर हमला शुरू कर दिया था।

एक- एक विद्रोही सैनिक को दुर्ग से निकाला था बाहर : संयुक्त बलों के साथ युद्ध इतना लंबा था कि अंत में गोलियों को गाने और भाले से बदल दिया गया था। हिम्मत सिंह की टुकड़ी को सफलता मिली। वे किले में घिरे एक-एक सैनिक को निकालने में सफल रहे।

दोतरफा मार से घबरा उठा था ह्यूरोज

ब्रिटिश सैनिकों को इस घेरे का तब पता चला जब उनकी पीठ पर गोलियां चलने लगीं। ह्यूरोज कुछ क्षणों के लिए इस दोतरफा मार से घबरा उठा। लेकिन उसने तुंरत आधी सेना का रुख बाहर से घेरा डालने वाली शत्रु सेना की ओर कर दिया। 

मर्दन सिंह और बखतबली की सेनाएं ब्रिटिश सेना के प्रतिरोध की परवाह न करके शत्रु सेना की ओर बढ़ने लगीं। हिम्मत सिंह अपने चुने हुए साथियों के साथ आगे बढ़े और किले के मुख्य द्वार की ओर ब्रिटिश सेना को हटाते हुए मार्ग बनाने लगे।

राहतगढ़ का किला - Rahatgarh Fort Sagar Madhya Pradesh


सागर जिले में स्थित राहतगढ़ में बीना नदी के किनारे पहाड़ी पर यह एक विशाल व भव्य किला है। महाराजा संग्राम शाह के पूर्व यहां पर चंदेल और परमार शासकों ने शासन किया। महारानी दुर्गावती एवं वीरनारायण की मृत्यु के बाद उनके उत्तराधिकारी राजा चंद्रशाह को गोंडवाना साम्राज्य का राजा बनाने के लिए अकबर को जो दुर्ग देने पड़े उनमें से एक राहतगढ़ किला भी था।


इस किले की बनावट सुरक्षा की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। किले की बाहरी दीवारों के साथ सुरक्षा चौकियों के अवशेष भी दिखाई देते हैं। पहाड़ी बहुत ऊंची है और किले की बनावट ऐसी है कि आक्रमणकारियों पर दूर से ही निशाना लगाया जा सकता है। किला ऊंची चहारदीवारी से घिरा है जिसमें सुरक्षा चौकियां बनी हैं। किले के दक्षिण किनारा बीना नदी की खाई से लगा हुआ है। इस खाई से होकर किले में प्रवेश कर पाना असंभव सा है।

सागर में घूमने वाली जगहें - Places To Visit In Sagar Madhya Pradesh


गढ़पहरा का इतिहास - History Of Garhpahra In Hindi


यह महाराजा संग्रामशाह के 52 गढों में से एक गढ़ था। संग्राम शाह की मृत्यु के बाद यहां का राज्य दांगी राजपूतों के हाथों में चला गया। किंतु गढ़ा राजवंश के 57 वें शासक राजा नरेंद्रशाह के शासनकाल में गढ़पहरा गढ़ा राज्‍य का पुन: हिस्‍सा बन चुका था। अपने ही राजवंश के पहाड़सिंह के दोनों पुत्र अब्‍दुल रहमान और अब्‍दुल हाजी ने सत्‍ता हथियाने के लिए शाही सेना की मदद से गढ़ा राज्‍य पर आक्रमण कर दिये।

युवा राजा नरेंद्रशाह ने शत्रुओं को परास्‍त करने के लिये ओरछा के राजा छत्रसाल और बख्‍त बुलंदशाह से सहायता मांगी। बख्‍त बुलंदशाह ने छत्रसाल की सैन्‍य सहायता मिलने से पहले ही अब्‍दुल रहमान, अब्‍दुल हाजी और अजीम खां को गंगई के युद्ध में मौत के घाट उतार दिया। इस सहायता के बदले में छत्रसाल को गढ़पहरा सहित हटा, रहली, खिमलासा और दमोह के किले दिये तथा बख्‍त बुलंदशाह को चौरई, डोंगरताल और घुंसार/घंसौर के किले दिये थे।


गढ़पहरा का किला सागर जिला में राष्ट्रीय राजमार्ग 26 से लगा हुआ एक पहाडी पर स्थित है। किले के प्रवेश द्वार से लगा हुआ एक सिद्ध हनुमान जी का मंदिर है। किला परिसर में कुछ दूरी तय करने पर एक बेहद आकर्षक शीशमहल मिलता है। इस शीशमहल का आकार मंदिरनुमा है।

गढ़पहरा के मुख्य किला दो भागों में बंटा हुआ है। दोनों भागों में बहुत से कमरे बने हुए हैं जिनमें पत्थरों की शानदार मियालों का प्रयोग किया गया है। महल में लगे पत्थरों पर कारीगरों द्वारा नक्काशी की गई है। वर्तमान में किले के भग्‍नावशेष ही विद्यमान हैं। किला परिसर एवं किले के उपर से आसपास का दृश्‍य अत्‍यंत मनोरम होता है।

कहते हैं कि एक दुर्घटना में इस किले से स्टंट दिखाते समय एक नटिन की जान चली गई थी। जिस जगह पर गिरकर नटिन की जान चली गई थी, उसी जगह पर नटिन की समाधि बना दी गई थी। यह समाधि राजमार्ग के नजदीक बनी हुई है। स्‍थानीय लोगों का कहना है कि इस किले में नट और नटिन की आत्‍मा भटकती रहती है।

गढ़पहरा कैसे पहुंचें

सागर जिला मुख्‍यालय से सागर-झांसी मार्ग पर करीब 10 किलोमीटर तय करने पर गढ़पहरा मिलता है। किला एक पहाड़ी पर स्थित है। गढ़पहरा को पुराना सागर भी कहा जाता है। इसी मार्ग पर से होकर धामोनी जाते हैं।

राहतगढ़ का सुंदर वॉटरफॉल - Rahatgarh Waterfall In MP


सागर-भोपाल मार्ग पर करीब 40 किमी दूर स्थित राहतगढ़ वॉटरफॉल के कारण अब एक बेहद लोकप्रिय पिकनिक स्पॉट है। प्राचीन काल में यह अपने कंगूरेदार दुर्ग, प्राचीर द्वारों, महल और मंदिरों-मस्जिदों के लिए प्रसिद्ध था। कालांतर में सब नष्ट होता चला गया और अब यहाँ दुर्ग के सिर्फ अवशेष बचे हैं।

बीना नदी के ऊँचे किनारे पर स्थित राहतगढ़ कस्‍बा पुरावशेषों के अनुसार ग्यारहवीं शताब्दी में परमारों के शासनकाल में बहुत अच्छी स्थिति में था। कस्बे से करीब 3 किमी दूर स्थित किले की बाहरी दीवारों में कभी बड़ी-बड़ी 26 मीनारें थीं। भीतर पहुँचने के लिए 5 बड़े दरवाजे थे।


कालांतर में यहां हुई लड़ाइयों और देखरेख के अभाव में राहतगढ़ का वैभव अतीत की काली गुफा में दफन हो गया। सागर के स्थानीय निवासी वर्षा-ऋतु में यहाँ छुट्टी के दिन समय बिताने के लिए बड़ी संख्या में जाते हैं। शहर के आस-पास ऐसे स्थलों का अभाव होने के कारण यह पिकनिक मनाने का अत्यंत लोकप्रिय स्‍थान है।

कैसे पहुंचें:
हवाई मार्ग से
जबलपुर में निकटतम एयर पोर्ट 180 किमी और भोपाल 200 किमी

ट्रेन द्वारा
नजदीकी रेलवे स्टेशन सागर है। यह सागर से लगभग 40 किमी दूर है

सड़क मार्ग से
यह सागर भोपाल रोड पर सागर से 40 किमी दूर है

सागर झील (लाखा बंजारा झील) - Sagar Lake (Lakha Banjara Lake) MP


बुंदेलखंड और खासतौर से सागर की जनता इस नाम को अच्छे से जानती है। क्षेत्रीयता और स्थानीय परंपराओं में विश्वास करने वालों ने लाखा बंजारा के नाम पर ही सागर झील का नाम लाखा बंजारा झील रखा है। लेकिन आश्चर्य नहीं कि लाखा बंजारा का नाम ढूंढने पर भी किसी सरकारी अभिलेख में नहीं मिलता है। लाखा बंजारा को आज इस क्षेत्र में एक महानायक के रूप में जाना जाता है

सागर झील की उत्पत्ति के बारे में कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं। इस क्षेत्र में प्रचलित किंवदंतियों के अनुसार कहा जाता है कि झील खोदी गई लेकिन उसमें पानी नहीं आया। तो राजा ने घोषणा की कि जो भी झील में पानी लाने का उपाय बताएगा उसे पुरस्कार दिया जाएगा. किसी ने बताया कि यदि झील के बीचों-बीच किसी नवविवाहित दंपति को झूले में बैठा कर झुलाया जाए, तो झील लबालब हो जाएगी लेकिन सबसे कठोर तथ्य यह था कि उस दंपति को अपनी जान से हाथ धोना पड़ता।


यह सुनकर सब दुखी हो गए कि अब झील में पानी नहीं आ सकेगा। किसी की हिम्मत नहीं थी कि अपनी जान देकर झील में पानी ला सके। इतनी कठोर शर्त सुनने के बाद जब सब निराश हो चुके थे, तो लाखा बंजारे ने अपनी बहू और बेटे को तालाब के बीचों-बीच झूले में बैठाकर झुलाने का फैसला लिया। लाखा के इस फैसले के बारे में जानकर लोग आश्‍चर्यचकित रह गए।

इसके बाद निर्धारित दिन समारोहपूर्वक नवविवाहित युगल को स्वर्णनिर्मित रत्नों से जड़े झूले में बैठाकर झुलाया गया। जैसी कि आशा थी झील में पानी तो आ गया लेकिन लाखा बंजारा के बहू-बेटे उस में डूब गए। इसे लाखा का क्षेत्र के लिए बहुत बड़ा बलिदान माना जाता है। इसी बलिदान के कारण आज बुंदेलखंड में और खास तौर से सागर में लाखा बंजारा एक लोकनायक के रूप में जाना जाता है।

नौरादेही संरक्षित वन - Nauradehi Wildlife Sanctuary MP


अपनी बायो डायवर्सिटी के कारण नौरादेही वन्य जीव सेंक्चुरी का स्थान सबसे अलग है। सागर, दमोह और नरसिंहपुर जबलपुर जिलों में फैली इस वाइल्ड लाइफ सेंक्चुरी में ट्रैकिंग, एडवेंचर और वाइल्ड सफारी का आनंद लिया जा सकता है। नौरादेही सेंक्‍चुरी की स्‍थापना सन् 1975 में की गई थी। यह करीब 1200 वर्ग किमी क्षेत्र में फैली है।

इस सेंक्चुरी में वन्यजीवों की भरमार है, जिनमें तेंदुआ मुख्य है। एक समय यहां कई बाघ भी पाए जाते थे लेकिन संरक्षण नहीं मिलने के कारण अब वे लुप्त हो चुके हैं। तेंदुआ भी इसी हश्र की ओर अग्रसर है। चिंकारा, हरिण, नीलगाय, सियार, भेडि़या, जंगली कुत्ता, रीछ, मगर, सांभर,मोर, चीतल तथा कई अन्य वन्य जीव इस क्षेत्र में पाए जाते हैं। वनविभाग इसके संरक्षण का काम करता है।


यहां पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए कुछ नई योजनाएं बनाई गई हैं। नौरादेही सेंक्‍चुरी में पहुंचने के लिए डीजल या पैट्रोल स चलने वाले ऐसे किसी भी वाहन के प्रयोग की छूट है जो पांच वर्ष से अधिक पुराना ना हो। यह MP राज्य का सबसे बडा अभ्यारण है। इसमे सागौन,साल,बांस और तेंदु के पेड बहुत मात्रा मे पाये जाते है। यहाँ मृगन्नाथ की गुफाएँ बहुत ही रोमान्चक तथा धार्मिक है। 

नये जंगली पक्षी - डस्की ईगल ओउल ,पेंडेट सैडग्राउज ,जो पहली बार अभ्यारण में देखे गए गिद्धों की 3 प्रजातियां इंडडियन पिट्टा किंग वल्चर इंडियन वल्चर सामने आई है प्रमुख पक्षियों मैं सिने रस टीट,मोर ग्रीन सैड पाइपर क्रेस्टेड ट्रीरिवफ्ट क्रेस्टेड वॉर्डिंग सल्फर वैली बाँब्लर पैंटेड स्टार्क यूरिशियन डार्टर ब्राउन ओउल बोनिली ईगल ओरियंटल हनीबजार्ड भी देखे गये।

कैसे पहुंचें:
हवाई मार्ग से
निकटतम हवाई अड्डा जबलपुर 180 किमी है। भोपाल 200 कि.मी.

ट्रेन द्वारा
नजदीकी रेलवे स्टेशन सागर है।

सड़क मार्ग से
यह सागर रेहली जबलपुर रोड पर है। यह लगभग 60 कि.मी.।

खिमलासा का इतिहास - History Of Khimlasa In Hindi

उल्लेखों के मुताबिक इस नगर का नाम पहले क्षेमोल्लास था। फिर धीरे धीरे कमलासा और फिर खिमलासा हो गया। कमलासा नाम के पीछे बढ़ी वजह यह रही कि यहां कमल के फूलों की खेती अत्याधिक मात्रा में हुआ करती थी। खिमलासा की संरचना कमल के फूल की तरह है। चारो तरफ किले की दीवार से गिरी हुई बस्ती ऊपर से देखने पर कमल के फूल के समान प्रतीत होती है जिसकी वजह से इसका नाम कमलासा हुआ। 

खिमलासा सागर ज़िला, मध्य प्रदेश का ऐतिहासिक स्थान था। गढ़मंडला की रानी दुर्गावती के श्वसुर संग्राम सिंह के 52 गढ़ों में से एक यहाँ स्थित था। इन्हीं गढ़ों के कारण दुर्गावती का राज्य गढ़मंडला कहलाता था। संग्राम सिंह की मृत्यु 1541 ई. में हुई थी। 16वीं- 14वी सदी में यह क्षेत्र मुगलों के अधीन रहा, बाद में खिमलासा, धामोनी और गढ़ाकोटा में मुगल सेना को परास्त कर महाराज छत्रसाल ने अपना राज्य स्थापित किया। 1818 के पश्चात यह क्षेत्र ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन था। 


1861 में प्रशासनिक व्यवस्था के लिए इस क्षेत्र को नागपुर से मिला लिया गया और यह व्यवस्था 1956 तक नए मध्यप्रदेश राज्य के पुनर्गठन तक बनी रही।

कैसे पहुंचें:
हवाई मार्ग से
निकटतम हवाई अड्डा जबलपुर 200 किमी और भोपाल 140 किमी।

ट्रेन द्वारा
निकटतम रेलवे स्टेशन खुरई।

सड़क मार्ग से
खुरई से लगभग 15 किमी।

रानगिर देवी मंदिर

यह सागर-रहली मार्ग पर रहली से करीब 20 किमी दूर देहार नदी के किनारे पर स्थित है। यह महाराजा छत्रसाल और धामोनी के मुगल फौजदार खालिक के बीच हुए एक युद्ध का साक्षी था। मराठा सूबेदार गोविंदराव पंडित ने रानगिर को अपना मुख्यालय बनाया था। समीप की पहाड़ी पर हरसिद्धी देवी का एक मंदिर है, जहां आश्विन और चैत्र के महीनों में देवी के सम्मान में मेला लगता है। चैत्र मेले का विशेष महत्व है और इस दौरान यहां हजारों की संख्या में भक्त आते हैं।

हवाई मार्ग से
निकटतम हवाई अड्डा जबलपुर में 180 किलोमीटर है। भोपाल से 200 किमी।

ट्रेन द्वारा
निकटतम रेलवे स्टेशन सागर है। रंगीर सागर रेलवे स्टेशन से लगभग 35 किमी दूर है।

सड़क मार्ग से
यह रेहली रोड पर है।

एरण का इतिहास - History of Eran


एरण के प्रचीनकाल के इतिहास के बारे में मिले पुरातात्वीय अवशेष हालांकि गुप्तकाल के हैं लेकिन यहां मिले सिक्कों से ज्ञात होता है कि ईसा पूर्व काल में भी यह स्थान आबाद था। एरण के बारे में माना जाता है कि यह गुप्तकाल में एक बहुत ही महत्वपूर्ण नगर था। प्राचीन संदर्भ पुस्तकों के अनुसार एरण को स्वभोग नगर कहा जाता था। कुछ लोगों का विश्वास है कि एरण जेजकभुक्ति की राजधानी रहा है।

जनरल कनिंघम ने यह सर्वप्रथम प्राचीन एरिकिण नगर की पहचान एरण से की। एरण नामाकरण के संबंध में विद्वानों के कई विचार हैं। एक मत के अनुसार चूँकि यहाँ रईरक या ईरण नाम की घास बहुतायत में पैदा होती है, अतः इसका ऐसा नाम पड़ा. कुछ अन्य विद्वानों का मत है कि यह नाग "ऐराका' नामक नाग के कारण पड़े. यहाँ प्राचीन काल में नागों का अधिकार था।


एरण की स्थिति भौगोलिक दृष्टि से महत्वपूर्ण रही है। यह एक ओर मालवा का, तो दूसरी ओर बुंदेलखंड का प्रवेश- द्वार माना जा सकता है। पूर्वी मालवा की सीमा-रेखा पर स्थित होने के कारण यह दशार्ण को चेदि जनपद से जोड़ता था। सैनिक नियंत्रण की दृष्टि से भी इस स्थान को गुप्त शासकों ने अच्छा माना।

ऐतिहासिक महत्व को इस स्थान का उत्खनन कराने पर यहाँ के टीलों से प्राप्त सामग्री, मृदभांड एवं स्तर विन्यास के आधार पर ज्ञात संस्कृतियाँ ताम्रयुग से लेकर उत्तर मध्यकाल तक क्रमिक इतिहास बनाती है। पुरातात्विक साक्ष्यों से पता चलता है कि एक समय यह एक वैभवशाली नगर हुआ करता था। यहाँ की वास्तु तथा मूर्तिकला का हमेशा एक विशेष मान्यता दी गई है। कनिंघम ने यहाँ से प्राप्त मुद्राओं को तीन भागों में वर्गीकृत किया है- आहत मुद्राएँ, ठप्पांकित मुद्राएँ तथा सांचे द्वारा निर्मित मुद्राएँ. इन मुद्राओं में हाथी, घोड़ा, वेदिका, वृक्ष, इंद्रध्वज, वज्र (उज्जैन चिन्ह), मत्स्य, कच्छप आदि के चिन्ह प्रमुख हैं।

कैसे पहुंचें:
हवाई मार्ग से
निकटतम हवाई अड्डा भोपाल 200 किमी है।

ट्रेन द्वारा
नजदीकी रेलवे स्टेशन जिला सागर में बीना है।

सड़क मार्ग से
यह सागर से खुरई बीना रोड की ओर लगभग 80 कि.मी.।



यह क्षेत्र आमतौर पर बुंदेलखंड के रूप में जाना जाता है। इसके उत्तर में छतरपुर और ललितपुर, पश्चिम में विदिशा, दक्षिण में नरसिंहपुर और रायसेन तथा पूर्व में दमोह जिले की सीमाएं लगती हैं। जिले के दक्षिणी भाग से कर्क रेखा गुजरती है। भौगोलिक दृष्टि से सागर देश के मध्य में स्थित है और इसे ‘‘भारत का हृदय’’ कहना उचित होगा।

प्रमुख नदियां

सागर जिले में प्रमुख रूप से धसान, बेबस, बीना, बामनेर और सुनार नदियां निकलती हैं। इसके अलावा कड़ान, देहार व कुछ अन्य छोटी बरसाती नदियां भी हैं।

सागर विश्वविध्यालय


मध्यप्रदेश का पहला और देश का 16वां विश्वविध्यालय था। इसकी स्थापना 18 जुलाई 1946 को डॉ. हरीसिंह गौर ने अपनी जीवन की अर्जित सारी कमाई दान कर की थी। यह दुनिया में इस प्रकार के दान का अनूठा मामला है। इस विश्वविद्यालय को हम हम डॉ॰ हरीसिह गौर विश्वविध्यालय के नाम से जानते है। वर्ष 2009 में इसे केन्द्रीय विश्वविध्यालय का दर्जा मिल गया।

सागर के बुंदेली कॉमेडी स्टार



टिकटोक पर फेमस रह चुके आशीष और बिहारी उपाध्याय भी सागर के हसरई गाओ के रहने वाले है।
आशीष और बिहारी उपाध्याय आजकल यूट्यूब पर अपनी बुंदेली कॉमेडी से सबको एंटरटेन कर रहे है।

आशीष उपाध्याय की बुंदेली कॉमेडी वीडियोस देखने के लिए यहाँ क्लिक करे।

बिहारी उपाध्याय की बुंदेली कॉमेडी वीडियोस देखने के लिए यहाँ क्लिक करे।

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